Sunday, January 31, 2021

लघुकथा - काँटा

 काँटा


बारहों महीने वे व्यस्त रहते। मै सुबह उन्हें खेत में जाते देखता और शाम को खेत से आते। कभी वे खुरपा-खुरपी, कभी हंसिया, कभी कुदाल, कभी फावड़ा आदि लेकर जाते। एक दिन मैने पूछ लिया -“कितना जोतते हैं?“


“पाँच... पांच बीघे,“ वे बोले।


“तब तो खाने की कमी नही होती होगी,“ मैने पूछा।


“हाँ, नही होती,“ वे बोले।


“बेचना पड़ता होगा?“ मैने पूछा।


“नही। बेचने भर का नही होता,“ वह सहजता से बोले।


लेकिन मैं चकित था। मैने पूछा -“पाँच बीघे का अनाज खा जाते हैं?“


वे बोले -“अरे गल्ले पर है। खेत मेरा नही है।“


“आपका कितना बीघा है?


उन्होंने ने हाथ से कुछ नही का इशारा किया। मैने पूछा-“भाई-पाटीदार के पास भी नही होगा?“


वे बोले -“नही, किसी के पास नही है।“


“लेकिन खेती सब करते हैं.... सब किसान हैं,“ मैने कहा।


वे मुस्कराए और बोले -“हाँ।“


“तब तो अनुदान-सहयता कुछ नही मिलता होगा?“


“कहाँ से मिलेगा? जब किसी के नाम पर एक धुर भी नही है।“


“दादा-परदादा से ही ऐसे...“


“हाँ। दादा-परदादा का भी खेत नही था।“


“लेकिन गाँव के दूसरे लोगो के पास तो पाँच-पाँच दस-दस बीघा है।“


“उन्हें भगवान ने दिया है।“


“मतलब आपको भगवान ने नही दिया?“


“हाँ, ऐसा ही है।“


मै उनको और खंगालने लगा। मैने पूछा -“भगवान ने आपको क्यों नही दिया?“


“अब नही दिया तो नही दिया। क्यो नही दिया ये वही जाने,“ वे मुस्कुरा कर बोले।


“अच्छा आपको लगता है कि भगवान ही सबको देता है? देता है तो भेदभाव क्यों?“ मैने उन्हे टटोला।


इस बार वे झल्लाये, “भगवान के नाम पर संतोष तो करने दीजिए...कहाँ सिर फोड़ लूँ...।“ मै समझ गया कि कांटा बहुत गहराई में है।

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