हार
जेठ की दुपहरी में बीच सड़क पर किसी के सैंडल का तल्ला निकला होगा तो मेरा कष्ट समझ सकता है। लेकिन मेरे साथ अच्छी बात यह थी कि मुझे दूसरी तरफ बैठा मोची दिख गया था। वह एक फल वाले ठेले के बगल में बैठ कर छांव ढूंढ़ने का प्रयास कर रहा था। मैने कहा - ‘‘इसे गोंद से चिपका दो।’’ उसने प्रश्न किया - ‘‘सिल दूँ?’’ मैने कहा, ‘‘नही भाई, लुक बिगड़ जायेगा।’’ उसने अंगुली से इशारा करते हुए कहा - ‘‘वहाँ चले जाइये। हो जायेगा।’’ मै तिलमिलाकर रह गया। जरा सा काम है। जब मै कह रहा हूँ कि चिपका दो तो वह सिलने पर आमादा है। ऐसी हालत में वहां जाना एक सजा था। मैने पूछा - ‘‘क्यों? तुम नही कर सकते?’’ उसने पुनः अंगुली दिखाया - ‘‘बता तो रहा हूँ कि वहाँ चिपक जायेगा।’’ मैने ध्यान से देखा। उसके पास दो पॉलिश की डिब्बियां थी - एक काली, दूसरी लाल, एक निहाई, कैंची और कुछ चमरौधे बस। मैने प्रश्न किया -
‘‘तुम्हारे पास गोंद नही है क्या?’’
उसने मुझे केवल देखा।
‘‘कितने में मिलेगा?’’
‘‘आप वहीं बनवा लीजिए।’’
‘‘ऐसे ही दुकान लगाए हो? जब सामान नही रहेगा तो कैसे कमाओगे? पचास रूपये में मिल जायेगा?’’
उसने हामी में सिर हिला दिया। मैने उसे पैसे दिए तो वह गोंद लेने चला गया। मेरे अंदर कई सवाल उठ रहे थे। गुस्सा भी आ रहा था। वह आया तो मैने पूछा - ‘‘कितना कमाये आज?’’
‘‘ उन्नीस रूपया।’’
‘‘इतने से घर चल जाता है?’’
‘‘हां।’’
‘‘अनाज कैसे खरीदते हो?’’
‘‘खरीदना नही पड़ता। राशन कार्ड पर मिल जाता है।’’
‘‘सब्जी तो खरीदना पड़ता होगा?’’
‘‘आलू दस रूपये किलो है। एक दिन लाता हूँ दो दिन चलता है।’’
‘बच्चों को पढ़ाते हो या नही? फीस कैसे देते हो?’’
‘‘फीस नही देना पड़ता। सरकारी में हैं। खाना भी मिलता है।’’
वह मुझे हर दांव पर पछाड़ रहा था। उसके पास जरा सा भी गुस्सा या असंतोष नही था। उसे देखकर मै झुंझला रहा था। मैने पूछा - ‘‘कभी फल वगैरह खाते हो?’’ इसबार मै जानता था कि उसका उत्तर नकारात्मक होगा। वह बोला - ‘‘फल तो भाई साहब रोज ही खिलाते हैं।’’ उसने फलवाले को देखा और उसने हामी भरी। उसने कहा - ‘‘हो गया,’’ और सैंडल आगे कर दिया। वह शांत था और मै उद्विग्न। मैने पूछा - ‘‘कितना दूँ?’’
वह बोला - ‘‘जो मर्जी।’’
मुझे लगा उसने मुझे धोबी पाट दे मारा और मै चित्त था।
(कथादेश अखिल भारतीय लघुकथा प्रतियोगिता 2019 में प्रथम)
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